अनुष्ठान किसी भी मास में किया जा सकता है। तिथियों में पन्चमी, एकादशी, पूर्णमासी शुभ मानी गयी हैं। पन्चमी को दुर्गा, एकादशी को सरस्वती, पूर्णमासी को लक्ष्मी तत्त्व की प्रधानता रहती है। शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष दोनों में से किसी का निषेध नहीं है, किन्तु कृष्णपक्ष की अपेक्षा शुक्लपक्ष अधिक शुभ है।
अनुष्ठान आरम्भ करते हुए नित्य गायत्री का आवाहन करें और अन्त करते हुए विसर्जन करना चाहिए। इस प्रतिष्ठा में भावना और निवेदन प्रधान है। श्रद्धापूर्वक ‘भगवती, जगज्जननी, भक्तवत्सला माँ गायत्री यहाँ प्रतिष्ठित होने का अनुग्रह कीजिए’ ऐसी प्रार्थना संस्कृत या मातृभाषा में करनी चाहिए। विश्वास करना चाहिए कि प्रार्थना को स्वीकार करके वे कृपापूर्वक पधार गयी हैं। विसर्जन करते समय प्रार्थना करनी चाहिए कि ‘आदिशक्ति, भयहारिणी, शक्तिदायिनी, तरणतारिणी मातृके! अब आप विसर्जित हों’। इस भावना को भी संस्कृत में या अपनी मातृभाषा में कह सकते हैं। इस प्रार्थना के साथ- साथ यह विश्वास करना चाहिए कि प्रार्थना स्वीकार करके वे विसर्जित हो गयी हैं।